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जब मैं यह लेख लिखने बैठा हूँ उस वक्त हम लोग भारत का 77वां स्वतन्त्रता दिवस मना रहे हैं । आज यह लेख लिखने का मौका भी है और दस्तूर भी है ।
नमस्कार दोस्तो मैं पंडित योगेश वत्स पेज पर आने वाले सभी भारतीय मेहमानों का स्वागत करता हूँ और विदेश में बसे तमाम भारतीयों को भी अपने देश की तरफ से सस्नेह बहुत बहुत स्वागत करता हूँ ।
आज का दिन विशेष है तो यह लेख भी विशेष होने वाला है आज मैं धर्म,अध्यात्म और ज्योतिष की बात न करके अपने देश के पुराने दिनों को याद करते हुए हल्के फुल्के ढंग से अपने प्रिय भारत देश के सफर को याद करूंगा । आज विचार करूंगा कि हम लोग कहाँ से चले थे और आज हम लोग कहाँ हैं ।
77 साल लंबा समय होता है । एक पीढ़ी का देहावसान हो जाता है इस समयाविध में, लेकिन आज अगर हम सकारतमक्ता से सोचें तो यह समय ज्यादा नहीं है हमें नहीं भूलना चाहिए हमारे ऊपर कितने आक्रमण हुए,हजार साल से ऊपर से हम गुलामी की जंजीरों से जकड़े रहे,विविधताओं से भरे देश को आगे ले जाना इतना आसान नहीं था अंग्रेजों ने भी नहीं सोचा होगा कि हम एक रह पाएंगे, जहां अलग अलग अलग भाषा हो,संस्कृति हो,धर्म हो वहाँ साथ चलना कभी आसान नहीं होता लेकिन हम एक साथ आगे बढ़ते रहे । हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि आजादी के बाद भी हमने कई बड़े युद्ध भी झेले हैं ।
आज Digital India, Make In India,Start Up India की चर्चा चारों तरफ हो रही है पीछे मुड़ के देखूँ तो बहुत लंबा सफर रहा है यहाँ तक पहुँचने में ।
मैं आज 70 के दशक के भारत की बात करूंगा यह वो समय था जब देश नया नया जवान हो रहा था । जवानी के जैसे सपने होते हैं वैसे ही इस देश के थे लेकिन जवानी में अपनी राह खोजने के जो संघर्ष होते हैं वही इस देश के थे । जवानी में हमको नहीं पता होता है हमें किधर जाना है हर रास्ता मंजिल की ओर जाता लगता है हम तमाम प्रयोग कर रहे होते हैं वैसे ही इस देश ने भी अलग अलग प्रयोग किए और अलग अलग रास्ते लिए आज हम उनको गलत सही के तराजू पर तौल सकते हैं लेकिन उस समय जो देश को सही लगा वो देश ने किया ।
मैं यहाँ इतिहास की किताब से कुछ नहीं लिखूंगा मेरी अपनी धुंधली यादों में जो 70 का दशक है वही लिखूंगा । मेरा बचपना ही था बहुत छोटा ही था फिर भी मेरी याद दास्त ईश्वरीय कृपा से अच्छी रही है तो कुछ यादें तीन चार साल के उम्र की भी दिमाग पर छपी हुई हैं ।
उस समय की शिक्षा प्रणाली :
उस समय प्राथमिक शिक्षा सरकारी स्कूलों में ही होती थी,हर गाँव में स्कूल नहीं होते थे, जिन गांवों में स्कूल नहीं होते थे वहाँ के बच्चे दूसरे गांवों में पढ़ने जाते थे,तब के माता पिता अपने गाँव के स्कूल में ही बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते थे तो 5 साल के बच्चे को दूसरे गाँव में भेजने में तो और भी दिक्कत होती थी,तब ना माता पिता पढे लिखे होते थे न वो पढ़ाई के लिए जागरूक होते थे ।
तब बच्चे अपने पढ़ाई के सामान में एक लकड़ी की तख्ती जिसे हम लोग पट्टी बोलते थे,एक दवात ( काँच की कोई शीशी ) जिसमें खड़िया मिट्टी या चाक घुली रहती थी,एक बांस या लकड़ी की कलम, जो लोग सरकंडा जानते हों वो समझ सकते हैं और अपने साथ एक जूट की बोरी बिछाने के लिए लेकर आते थे बस यही सामान होता था पढ़ाई का प्राथमिक शिक्षा का । कच्ची जमीन में बैठना पड़ता था तो बिछाने के लिए बोरी जरूरी थी लेकिन अनिवार्य नहीं । ड्रेश के नाम पर जो भी कपड़े हों चलते थे ऊपर के न हों तब भी चलते थे । ज़्यादातर बच्चों के बाल घुटे ही रहते थे क्योंकि बालों में तेल लगाना पड़ता जो कि किसी किसी के यहाँ ही होता था हाँ आँख में काजल अनिवार्य था वो भी सभी के लिए चाहे लड़का हो या लड़की काजल भी बड़ा बड़ा । काजल पर एक हंसी का किस्सा याद आ गया जो आप लोगों से जरूर साझा करना चाहूँगा ।
सुबह सुबह स्कूल में प्रार्थना के समय हाथ के नाखून और काजल देखे जाते थे । एक दिन प्रार्थना के समय लाइन के पीछे से एक बच्चे के रोने की आवाज आई सब बच्चों ने पीछे देखा तो एक बच्चा रो रहा था, मास्टर साहब उसके पास गये और उस से रोने का कारण पूछा तो वह दूसरे बच्चे की तरफ इशारा करके बोला इसने मेरी आँख कोंच दी,ये मेरा काजल चुरा रहा था ( बच्चे तो बच्चे होते हैं सब बड़ा बड़ा काजल लगा के आते थे जो बच्चा काजल नहीं लगाए था वो उंगली पर थूक लगा कर दूसरे के आँख से काजल अपनी आँख में लगा रहा था )
प्राथमिक विध्यालय 5th तक होते थे उसके बाद जूनियर हाईस्कूल में दाखिला लेना होता था जो या तो दूर गाँव में होते थे या दूर कस्बे में होते थे,बहुत कम बच्चे ही जूनियर हाईस्कूल में दाखिला लेते थे एक तो दूरी की समस्या,दूसरी पढ़ाई से अरुचि और आर्थिक कारण । जूनियर हाईस्कूल के बाद इंटर कालेज जाना होता था जो किसी पास के कस्बे या शहर में होता था वहाँ तक बहुत कम बच्चे पहुँच पाते थे जो बच्चे पढ़ने में अच्छे भी होते थे वो भी पढ़ाई छोड़ कर अपने पिता की खेती किसानी में हाथ बटाने लगते थे ।
उस समय का खानपान और रहन सहन :
जिस देश में आज इटालियन,मेक्सिकन,थाई,चाइनीज खाना आसानी से उपलब्ध है उस देश में 70 के दशक में खाने भर को गेंहू भी उपलब्ध नहीं था ज़्यादातर लोग मोटा अनाज खाते थे जैसे जौ,बाजरा,मक्का,ज्वार, आज सरकार मोटे अनाज को बढ़ावा दे रही हैं, गेंहू कई बार इतना हो जाता है कि सरकारी गोदामों मे रखने को जगह नहीं बचती और तब गेहूं की रोटी सिर्फ मेहमान आने पर और गेंहू की पूड़ी सिर्फ तीज त्योहारों पर बनती थी बाकी ज़्यादातर जौ का आटा ही प्रयोग होता था या फ़सली टाइम में बाजरा,मक्का जो उपलब्ध हो । मोटे अनाज कम पानी में भी हो जाते थे,पानी के साधन उपलब्ध नहीं थे सिर्फ बरसात पर ही किसान निर्भर रहते थे ।
पहन ने के लिए कपड़े तो होते ही नहीं थे पुरुष सिर्फ नीचे धोती ही पहनते थे वो भी अक्सर पुरानी ही कभी कभी फटी हुई भी । औरतों को भी सिर्फ धोती ही नसीब होती थी लपेटने को वो घर के अंदर ही रहती थीं इसलिए चाहे ना चाहे वो फटी पुरानी धोती में ही गुजारा करने को मजबूर थी ऊपर के लिए कभी होते थे कभी नहीं बुजुर्ग महिलाएं तो जरूरत भी नहीं समझती थीं । वो घर के अंदर ही रहती थीं बाहर सिर्फ सौच के लिए निकलती थीं वो भी पर्दे में मुंह अंधेरे जब तक लोग जागें नहीं और सभी औरते ग्रुप में जाती थीं । अगर दिन में पेट खराब हो तो क्या करती थीं भगवान जाने । आज मोदी की शौचालय योजना के लिए कोई कुछ भी कहे लेकिन गाँव की महिलाओं के लिए कितनी जरूरी योजना है यह किसी गाँव की बुजुर्ग महिला से पूछिये ।
गाँव की महिलाओं या पूरे देश की महिलाओं ने अपना जीवन इतना दयनीय स्थित में गुजारा है जिसकी कल्पना आज नहीं की जा सकती । जिस घर में उनकी डोली आती थी वहाँ से उनकी अर्थी ही निकलती थी, पूरा जीवन वो अपने टूटे फूटे घर के अंदर ही गुजार देती थीं । बाजार हाट या मेला जाने को सबके पास ना पैसे थे ना परमीशन । वो घर के बाहर नहीं जा सकती थीं पति दिन में अंदर नहीं आ सकते थे, मर्द लोग घर के बाहर ही रहा करते थे सिर्फ खाने के लिए घर के अंदर आते थे बड़े बुजुर्गों का इतना दबदबा था कि मजाल लड़का घर के अंदर रहे । पति अपनी पत्नी से भी छिप छिपा कर रात में ही मिलता था । ऐसी स्थित में कोई महिला अपना दुख दर्द किस से साझा करे ? ऐसी हालत में पूरी ज़िंदगी गुज़ारना, कल्पना करिए । दशकों तक या कहें सदियों तक महिलाओं ने इन हालातों का सामना किया है । पहले राजा महाराजाओं का उत्पीड़न फिर अंग्रेजों जमीदारों का उत्पीड़न और आजादी के बाद भी महिलाओं को आजादी कब मिली क्या 1947 में ?
उस समय का यातायात :
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वैसे तो उस समय लोगों को ज्यादा आना जाना कहीं होता नहीं था क्योंकि ना आने जाने को पैसे होते थे ना कपड़े । आज वन्देभारत,शताब्दी,राजधानी जैसी ट्रेनें हैं आम आदमी भी हवाई जहाज से चल लेता है उस समय ज़्यादातर लोगों ने ट्रेने देखी तक नहीं थी बैठने की बात तो दूर । ट्रेन भी बहुत कम थीं ज़्यादातर कोयले से चलने वाली थीं । उस समय जब लोग ट्रेन से चलते थे तो सफ़ेद कपड़े नहीं पहनते थे क्योंकि ट्रेन से कोयले की राख़ उड़ती थी जिस से सारे कपड़े काले हो जाते थे ।
गाँव तक रोड नहीं पहुंची थी ज़्यादातर सड़क मार्ग कच्चा था और उन पर बैलगाड़ी ही चलती थी । ज़्यादातर लोग पैदल ही चला करते थे शहर या कस्बों को जाने के लिए तांगे ही होते थे । बड़ी बड़ी नदियों पर तो पुल थे लेकिन तब छोटी छोटी नदियां बहुत थीं जो बरसात में उफान पर होती थीं बरसात में या तो आना जाना बंद रहता था या दिन में लोग नावों से नदी पार कर के जाते थे । बसें बहुत कम थीं जो थीं वो बड़े शहरों को जोड़ने के लिए ही थीं ।
शादी ब्याह भी तब आस पास के गांवों में ही हुआ करते थे और बारातें भी बैलगाड़ी पर जाया करती थीं । तब दुल्हन वास्तव में डोली पर ही विदा हो कर आती थी जिसे आम बोलचाल में पालकी कहा जाता था । चार लोग पालकी उठा के चलते थे जिन्हें कहार कहा जाता था ।
उस समय रोजगार व्यापार :
उस समय व्यापार के नाम पर बहुत कुछ था भी नहीं और कुछ था भी तो कुछ ही लोगों के पास, बाकी लोग खेती किसानी ही करते थे बहुत कम लोग ही पढे लिखे होते थे कुछ लोग ही मैट्रिक(8th) तक पढ़ पाते थे,उनको पास के स्कूल में मास्टरी,या सरकारी विभाग में बाबू के स्तर की नौकरी मिल जाती थी । जो लोग शारीरिक रूप से ठीक ठाक होते थे वो फौज में भर्ती हो जाते थे ।
उस समय लोग सिर्फ खाने भर की चिंता करते थे बाकी का उनका खर्चा होता नहीं था उस समय सस्ते का जमाना था सोना भी 250 रुपए का प्रति तोला के आस पास था लेकिन तब भी वो आम पहुँच से दूर था ।
उस समय मनोरंजन के साधन :
उस समय शहर में तो कुछ सिनेमाघर पहुँच गये थे लेकिन आम आदमी बहुत कम ही वहाँ जा पाता था । गाँव देहात में केवल नौटंकी ही होती थी जो कभी कभी किसी गाँव में आती थीं उनका प्रचार मौखिक ही एक गाँव से दूसरे गाँव में पहुंचता था जिस से आस पास से रात को भीड़ जुट जाती थी जब रात को उनके नगाड़े गूँजते थे तो उनकी आवाज दूर तक जाती थी उसको सुन कर भी लोग आ जाते थे । नाटक के नाम पर कुछ गिने चुने नामों की ही ज्यादा फरमाइश होती थी उनमें से एक राजा हरिशचन्द्र और एक सुल्ताना डाकू का नाम जरूर होता था । गाँव के बुजुर्गों को नाटक में रुचि होती थी और लड़कों और जवानों को नाचने वाली में, उसको नाचने वाली ही कहा जाता था जबकि वो होता लड़का ही था ।
इसके अलावा साल में एक बार दशहरा पर होने वाली रामलीला और उसका मेला भी बहुत बड़ा आयोजन होता था जिसमें बहुत भीड़ जुटती थी, जिसका इंतिज़ार लोग पूरी साल किया करते थे । गाँव में होने वाली किसी की शादी भी मनोरंजन का एक साधन ही थी खासतौर पर महिलाओं के लिए तब ही वो घर से निकल पाती थीं और एक दूसरे से मिल पाती थीं । तब बारात तीन दिन तक रुकती थी जिसकी व्यवस्था में पूरा गाँव जुटता था और उसकी तैयारी बहुत पहले से शुरू हो जाती थी ।
नट नटी भी करतब दिखाने आते रहते थे और कठपुतली के नाच भी खूब मनोरंजन करते थे ।
चलते चलते अपनी बात :
दोस्तो यह लेख सिर्फ इसलिए लिखा क्योंकि बहुत से लोग इस देश को कोसते रहते हैं और कहते रहते हैं देखो यह देश साथ आजाद हुआ था कहाँ पहुँच गया वो देश कहाँ पहुँच गया और हमें देखो हम कहाँ पड़े हैं । लेख यह बताने का प्रयास था कि तमाम विसंगतियों और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद हम पड़े नहीं हैं बल्कि बहुत आगे बढ़े हैं और पिछले दस सालों में तो देश दूसरे देशों के साथ बराबरी में खड़ा है । महिलाओं के जीवन स्तर में बहुत सुधार हुआ है और उन्होने अपनी मेहनत और काबिलियत से समाज में सम्मानित जगह बनाई है ।
बहुत कुछ करने को अब भी बाकी है हमें गर्व के साथ और सकारात्मकता के साथ सोचना होगा और आगे बढ़ना होगा खुद को और देश को कोसना दुर्भाग्य पूर्ण है ।
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