भगवान कहाँ रहते हैं :

भगवान कहाँ रहते हैं ? भगवान का निवास स्थान कहाँ है ? यह सवाल सार्थक है या निरर्थक ? क्या भगवान का कोई अन्य लोक है, स्वर्गलोक,क्षीरसागर कैलाश पर्वत ?

नमस्कार दोस्तो ! मैं पंडित योगेश वत्स अपने धर्म,अध्यात्म और ज्योतिष के ब्लॉग पर बहुत बहुत स्वागत करता हूँ ।

भगवान कहाँ रहते हैं
वाल्मीक श्री राम संवाद

हम अपने आराध्य को अपने ईश्वर को यहाँ वहाँ खोजते हैं, हद तो तब होती है जब कुछ लोग सर्वशक्तिमान सत्ता को मान ने से ही इंकार कर देते हैं लेकिन इन सभी शंकाओं का समाधान हमारे शास्त्रों में मिलता है । हमारे देव ऋषि हमको अपने शास्त्रों मे सबकुछ बता कर गए हैं । ऐसी ही एक कथा रामायण के प्रसंग में आती है ।

राम कथा और राम कथा के प्रसंग सिर्फ एक बार पढ़ने के लिए नहीं होते इन्हें बार बार पढ़ना पड़ता है उनका मनन करना पड़ता है फिर कहीं वो धीरे धीरे जीवन में उतरते हैं । चलिये प्रसंग पर बढ़ते हैं ।

वाल्मीक जी ने भगवान राम को कहाँ निवास करने को बोला था ? ऊपर जो स्थान बताए गए हैं क्या वो सांकेतिक हैं ? आज इस लेख में इस बात की चर्चा लेकर मैं उपस्थित हुआ हूँ कि रामचरितमानस में वाल्मीक जी भगवान राम को कहाँ रहने को बताते हैं । रामचरितमानस ही एक ऐसा ग्रंथ है जो हमें सभी सवालों का जबाब देता है और हमारी सभी शंकाओं का निवारण करता है ।

राम कथा और राम कथा के प्रसंग सिर्फ एक बार पढ़ने के लिए नहीं होते इन्हें बार बार पढ़ना पड़ता है उनका मनन करना पड़ता है फिर कहीं वो धीरे धीरे जीवन में उतरते हैं । चलिये प्रसंग पर बढ़ते हैं ।

श्री राम वाल्मीक संवाद :

जब भगवान राम अपने वनवास के प्रारम्भिक काल में वाल्मीक मुनि के आश्रम पहुँचते हैं और उनसे यह पूछते हैं कि वो अपने वनवास को पूरा करने के लिए आगे कहाँ निवास करूँ ? उस समय वाल्मीक और भगवान राम के बीच जो बातचीत,जो संवाद होता है वह महत्वपूर्ण,सारगर्भित और बहुत से सवालों का जबाब देने वाला है ।

आप जब भी किसी सत्संग में हों या जहां कोई ऋषी आपस में वार्तालाप कर रहे हों तो आप चुपचाप ध्यानमग्न हो कर उनके वार्तालाप को सुनें उनकी वाणी उनका वार्तालाप अमृत वर्षा के समान होता है जो उसमें स्नान कर लेता है वह मन क्रम वचन से शुद्ध हो जाता है ।

भगवान राम के पूछने पर कि वो कहाँ निवास करें ? वाल्मीक जी कहते हैं …

अयोध्याकाण्ड रामायण दोहा 127 अर्थ सहित :

पूँछेहु मोहि कि रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाउँ।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि तुम्हहि देखावौं ठाउँ।।

अर्थ :

आपने( श्री राम ) ने मुझसे पूछा कि मैं कहाँ रहूँ ? परंतु मैं यह पूछते सकुचाता हूँ कि, जहां आप ना हों,वह स्थान बता दीजिये । तब मैं आपके रहने के लिए स्थान दिखाऊँ ।

आगे बाल्मीक जी बहुत ही सारगर्भित ढंग से भगवान श्री राम को उनके निवास का स्थान बताते हैं । यही वो स्थान हैं जहां हमेशा प्रभु वास करते हैं जिसने भी इन चौपाइयों के माध्यम से समझ लिया कि भगवान कहाँ रहते हैं तो उसकी सारी शंकाओं का समाधान हो जाता है ।

वाल्मीक जी भगवान राम को बताते हैं ……

अयोध्याकाण्ड रामचरितमानस चौपाई अर्थ सहित 127.2 :

सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।
जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।।
भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।।
लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे।।
निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।।
तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।

हे राम जी ! सुनिए, अब मैं वे स्थान बताता हूँ जहां आप सीता जी और लक्ष्मण जी के साथ निवास करिये । जिनके कान समुद्र की भांति आपकी सुंदर कथा रूपी नदियों से निरंतर भरते रहते हैं, परंतु कभी त्रप्त नहीं होते,उनके हृदय आपके लिए सुंदर घर हैं, और जिन्होने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शन रूपी मेघ के लिए सदा लालायित रहते हैं तथा जिनके लिए भारी भारी नदियों,समुद्रों, और झीलों का कोई अर्थ नहीं है वो आपके सौंदर्य रूपी एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं । हे रघुनाथ जी ! उन लोगों के हृदयरूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मण जी और सीता जी सहित निवास करिये ।

अयोध्याकाण्ड रामचरितमानस चौपाई 128.1 से 128.4 :

प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुबासा। सादर जासु लहइ नित नासा।।
तुम्हहि निबेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।
सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।।
कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदयँ नहि दूजा।।
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा।।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना।।
तुम्ह तें अधिक गुरहि जियँ जानी। सकल भायँ सेवहिं सनमानी।।

अर्थ :

जिसकी नाक आप के (प्रभु) पवित्र और सुगंधित (पुष्प इत्यादि ) सुंदर प्रसाद को आदर के साथ ग्रहण करती है ( सूँघती है ) और जो आपको भोग लगा कर भोजन करते हैं और आपके प्रसाद स्वरूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं ।

जिनके मस्तक देवता,गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेम सहित झुक जाते हैं, जिनके हाथ नित्य आप की ( भगवान की ) के चरणों की पूजा करते हैं और जिनके हृदय में सिर्फ आपका भरोसा है दूसरा नहीं तथा जिनके चरण आपके तीरथों में चलकर जाते हैं,हे राम जी ! आप उन के मन में निवास कीजिये ।

जो नित्य आपके मन्त्र्राज (राम नाम ) को जपते हैं और परिवार सहित आप की पूजा करते हैं । जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं तथा ब्राह्मणो को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं तथा जो गुरु को हृदय में आप से भी अधिक ( बड़ा) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं ।

अयोध्याकांड रामायण दोहा अर्थ सहित (129)

सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह कें मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।

अर्थ :

ऊपर बताए गए सभी कर्म करके सब का एकमात्र यही फल मांगते हैं कि श्री रामचन्द्र जी के चरणों में हमारी प्रीति हो, उन लोगों के मन रूपी मंदिरों में सीता जी और रघुकुल को आनंदित करने वाले आप दोनों बसिए ।

रामायण की श्रेष्ठ चौपाई अर्थ सहित :

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।।
जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।

जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान,और मोह है न लोभ है न क्षोभ है,ना राग है ना द्वेष है,और न कपट,दंभ और माया ही है ….. हे रघुराज ! आप उनके हृदय में निवास करिये ।

रामायण चौपाई अयोध्याकाण्ड :

सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।।
कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।
तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।।
जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।
जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।

अर्थ :

जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं,जिन्हें दुख और सुख, तथा प्रशंसा और गाली समान हैं, जो विचारकर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते सोते आपकी शरण में हैं और आप को छोड़कर जिनका कोई आश्रय नहीं है, हे राम जी ! आप उनके मन में बसिए ।

जो पराई स्त्री को माता के समान समझते हैं और पराया धन जिन्हे विष से भी भारी विष है । जो दूसरों की संपत्ति को देख कर खुश होते हैं और दूसरे की विपत्ति देख विशेष रूप से दुखी होते हैं और हे राम जी ! जिन्हे आप प्राणों के समान प्यारे हैं उनके मन आप के लिए रहने योग्य शुभ भवन हैं ।

रामचरितमानस दोहा अर्थ सहित :

स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।

अर्थ :

हे तात ! जिनके स्वामी,सखा,पिता,माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं उनके मन मंदिर में सीता सहित आप दोनों भाई निवास कीजिये ।

रामचरितमानस चौपाई अर्थ सहित :

अवगुन तजि सब के गुन गहहीं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।।
नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।
गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा।।
राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।
जाति पाँति धनु धरम बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई।।
सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना।।
करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा।

अर्थ :

जो अवगुणो को छोड़कर सबके गुणो को ग्रहण करते हैं, ब्राहमण और गौ माता के लिए संकट सहते हैं,नीति निपुणता में जिनकी जगत मर्यादा है,उनका सुंदर मन आप का घर है ।

जो गुणो को आपका और दोषों को अपना समझता है,जिसे सब प्रकार से आप का ही भरोसा है और राम भक्त जिसे प्यारे लगते हैं,उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिये ।

जाति, पांति, धन, धर्म, बड़ाई, प्यारा परिवार और सुख देने वाला घर … सबको छोड़कर जो केवल आपको ही हृदय में धारण किए रहता है, हे रघुनाथ जी आप उसके हृदय में रहिए ।

स्वर्ग,नरक और मोक्ष जिसकी दृष्टि में समान है, क्योंकि वह जहां तहां धनुष बान धारण किए हुए आप को ही देखता है और जो कर्म से , वचन से, और मन से आप का दास है, हे राम जी ! आप उसके हृदय में डेरा कीजिये ।

रामायण दोहा अयोध्याकाण्ड अर्थ सहित 131 :

जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु।।

अर्थ :

जिसको कभी कुछ भी नहीं चाहिए और जिसका आप से स्वाभाविक प्रेम है आप उसके मन में निरंतर निवास करिये, वह आपका अपना घर है ।

कथा सार :

वाल्मीक जी ने जो भी भगवान के रहने के लिए स्थान सुझाए उस से एक बात तो समझ आती है कि भगवान हर उस हृदय में वास करता है जिसका हृदय ऊपर बताए गए गुणों से भरा होता है, सभी चौपाइयों में एक बात सामान्य रूप से विध्यमान है कि भगवान पर भरोसा,उन से अटूट प्रेम और श्रद्धा जिनको होता है वो हृदय पवित्र होते हैं और उन हृदय में भगवान वास करते हैं ।

एक बहुत ही सुंदर बात चौपाई में आई है कि जो लोग पहले भगवान को खिला कर खाते हैं मतलब जिनके यहाँ भगवान का भोग लगता है भोग भी वो जो उस घर के अन्य सदस्य खाते हैं,वहाँ भगवान का निवास होता है ।

आज भी बहुत से घरों में पहले भगवान जी की थाली लगाई जाती है उनका भोग लगता है फिर खाना और लोगों को परोसा जाता है । जिन घरों में भी ऐसा होता है वहाँ बहुत सुख शांति रहती है,घर में क्लेश नहीं होता है क्योंकि भगवान का भोग शुद्ध खाने का लगता है वही खाना घर वाले खाते हैं तो उनके अंदर भी अच्छे संस्कार आते हैं ।

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